हिंदी-अंगूर, संस्कृत- द्राक्षा, गुजराती-द्राक्ष, मराठी-द्रख.अतिरिक्त-मधुरसा,
स्वदुस्फ्ला, फलोत्त्मा, गोस्तनीतेद्दु, द्राक्ष्पेद्दी,
प्राप्तिस्थान- हिंदुस्तान-अफगानिस्तान,एवं
फारस देश के अंगूर ज्यादा अच्छे होते हैं कश्मीर, औरंगाबाद, दौलताबाद, नासिक
इत्यादि स्थानों पर भी अंगूर पैदा होते हैं मगर वे सीमाप्रांत के अंगूर के बराबर
मीठे व गुणकारी नहीं होते हैं
पहचान- अंगूर
की लता लकड़ियों की टट्टियों पर चलती है इसके पत्ते गोलाकार, पांच दल वाले हाथ के
पंजे की आकृति के होते हैं इसके फूल सुगन्धित व हरे रंग के होते हैं, बालों के ऊपर फूलों की सींगे लगती है और फूल तथा फूल गुच्छेदार लगते हैं मचानो के ऊपर इसकी
बेलें खूब छा जाती हैं
गुण:-
आयुर्वेद:- कच्ची
दाख-स्वल्प गुणवाली, भारी, खट्टी और कफ पित्तहारी है पक्की दाख कुछ दस्तावर, शीतल,
नेत्रों को लाभकारी, भारी, पुष्टिकारक, सुस्वादु, स्वर को शुद्ध करने वाली, कसैली,मूत्र
व मलको निकालने वाली, वीर्यवर्धक,कफकारक, पौष्टिक तथा तृषा, ज्वर श्वास, वातरक्त,
कामला, मूत्रकच्छ, रक्तपित्त, मेह, दाह, और शोष को दूर करनेवाली है कालीदाख अथवा
गोस्तनी- वीर्यवर्धक, भारी और कफ-पित्त को नाश करने वाली है
यूनानी:- यूनानी
हकीम से दुसरे दर्जे में गर्म व तर मानते हैं कच्चे अंगूर को पहले से ठंडा और दुसरे दर्जे में रुक्ष मानते हैं यह स्निग्ध आमाशय व प्लीहा को नुक्सान पहुँचाने
वाला तथा वायुजनक है इसके पत्ते बवासीर और तिल्ली का दर्द दूर होता है ये
मूत्रनिस्सारक, वमन को दबानेवाले, मुंह से गिरनेवाले खून को बंद करनेवाले और खुजली
को लाभ पहुँचाने वाले हैं
विशेषगुण:-
छोटी दाख अर्थात किसमिस, मधुर, शीतल, वीर्यवर्धक, रुचिप्रद्द, खट्टा तथा श्वास, खांसी,
ज्वर, ह्रदय की पीड़ा रक्तपित्त, क्षत, क्षय, स्वरभेद, तृषा, वातपित्त और मुख के
कडवेपन को दूर करती है अंगूर के ताजे फल रुधिर को पतला करने वाले, छाती के रोगों में लाभ पहुँचाने वाले, बहुत
जल्दी पचने वाले रक्तशोधक तथा खून बढ़ाने वाले होते हैं
इसकी
लकड़ी की रख जोड़ों के दर्द में फायदेमंद इसकी डाली मूत्राशय,अंडकोष की सूजन एवं
बवासीर में लाभ पहुंचाती है इसका फल कफ को ढीला कर निकालने वाला, स्त्रियों के
मासिकधर्म को नियमित करनेवाला,खून बढानेवाला,पौष्टिक, वायुनलियों के प्रदाह में
लाभ पहुँचाने वाला और कब्ज को दूर करने वाला होता है यह खट्टा, मीठा, पाचक,
अग्निदीपक तथा फेफड़े, यकृत, मूत्राशय व जीर्णज्वर, की बीमारी में उत्तम है इन
बीजों की राख सूजन कम करने के लिए लगाई जाती है इसकी लकड़ी की राख बस्ती की पथरी
में गुणकारी और बवासीर की सूजन को दूर करने वाली होती है
इसके
सूखे फल अर्थात मुनक्का- शांतिदायक, रेचक, मृदु तथा प्यास, शरीर की गर्मी, कफ और
क्षय की बीमारी में लाभकारी है इसकी छोटी-छोटी शाखाओं का रस चर्मरोग की उत्तम दवा
है यूरोप के अंदर आँख के दर्द में भी यह काम में लिया जाता है
उपयोग:-
- वसन्त ऋतू में अंगूर की डाली को काटने से एक प्रकार का रस निकलता है इसको त्वचा के ऊपर लगाने से चर्मरोगों में बहुत लाभ होता है
- लकड़ी की भस्म को सिरके में मिलाकर लगाने से कुत्ते के जहर में लाभ होता है
- पत्ते पर घी चुपड़कर आग पर खूब गरम करके पीतों पर बाँधने से सूजन कम होती है
- पित्तज्वर और उसकी प्यास मिटाने के लिए अंगूर का शर्बत पिलाना चाहिए
- काढ़ा पिलाने से रुका हुआ पेशाब खुलकर आता है
- मुनक्का को बासी जल में चटनी की तरह पीसकर जल के साथ लेने से मूत्रकृच्छ में लाभ पहुंचता है
- ताजे अंगूर का स्वरस 1 सेर, जल 1 सेर, शुद्ध चीनी 2 सेर ले लेवें सबसे पहले जल में चीनी डालकर आग पर चढ़ावें जब उबाली आने लगे तब अंगूर का रस उसमें डाल दें उसके पश्चात एक तार व डेढ़ तार की चासनी आने पर उसको उतार लें यह शर्बत तृषा, शरीर की गर्मी, खांसी, स्वरभंग, राजयक्ष्मा, रक्ताविकर, पित्तसंबंधी, मन्दाग्नि, मुत्राविरोध इत्यादि अनेक रोगों में लाभ पहुंचाता है
घरेलु औषधि :-
- मुनक्का 100 ग्राम,
- मिश्री 400 ग्राम,
- बेल की जड़ 50 ग्राम,
- धाय के फूल 25 ग्राम,
- सुपारी 10 ग्राम,
- लौंग 10 ग्राम,
- जावित्री 10 ग्राम,
- जायफल 10 ग्राम
- तज, इलायची एवं तेजपत्ता 40 ग्राम
- सौंठ, मिर्च एवं पीपल 30 ग्राम
- नागकेशर 10 ग्राम
- मस्तगी-10 ग्राम
- केशर-10 ग्राम
- अकरकरा-10 ग्राम
- कूट- 10 ग्राम
इन सब को औषधियों को मिलाकर इनके वजन से चार गुना पानी में मिटट्टी के बर्तन के अंदर डालकर ऐसे स्थान पर रखें जहाँ इसको हवा ना लगे या जमीन में गाड़ देवें चौदह दिन बाद निकालें और इसके अर्क में केशर कस्तूरी मिलाकर बोतलों में भरकर रख दें यह औषधि दिन में चार-चार ग्राम दिन में दो से चार बार लें इससे कामशक्ति, कान्ति, जठराग्नि को बढ़ावा मिलता है
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